विषमो वातजान् रोगान् तीक्ष्णः पित्तनिमित्तजान् ।
करोत्यग्निस्तथा मन्दो विकारान् कफसम्भवान् ॥(सुश्रुतसंहिता
, सूत्रस्थानम् , ३१.२३)
ಜಠರಾಗ್ನಿಯು ವಿಷಮವಾದಾಗ ವಾತಸಂಬಂಧಿರೋಗವು, ತೀಕ್ಷ್ಣವಾದಾಗ
ಪಿತ್ತಸಂಬಂಧಿರೋಗವು, ಮಂದವಾದಾಗ ಕಫಸಂಬಂಧಿರೋಗವು ಉದ್ಭವಿಸುವುದು. ಆದ್ದರಿಂದ ಜಠರಾಗ್ನಿಯನ್ನು
ಸಮಸ್ಥಿತಿಯಲ್ಲಿ ಕಾಪಾಡಿಕೊಳ್ಳಬೇಕು.
हमारे शरीर मे
वात, पित्त, कफ यह तीन प्रकृतियाँ रहती हैं । उदर मे स्थित अग्नि विषम होने पर
वातज रोगों की उत्पत्ति करता है । वही तीक्ष्ण होने पर पित्तनिमित्तक रोगों का
कारण बनता है, तथैव मन्दाग्नि कफ से सम्भावित रोगों का हेतु है । इसी लिये हर
मनुष्य को जठराग्नि का सन्तुलन रखना चाहिए ।
There are three types of human natures called Vata,Pittha
and Kapha , the Jatharaagni of a human supports his/her digestive system. If a persons Jatharaagni gets
odd, it leads to emergence of Vata
based diseases . If the digestive process of Jatharaagni gets pungent it creates the Pittha
based diseases . Moreover, slow digestion process by Jhatharaagni leads to the Kapha based
diseases. Therefore one must try to keep a balanced digestion process for an
ideal health.