Thursday, August 3, 2017

शास्त्रकोषः

विषमो वातजान् रोगान् तीक्ष्णः पित्तनिमित्तजान् ।
करोत्यग्निस्तथा मन्दो विकारान् कफसम्भवान् ॥(सुश्रुतसंहिता , सूत्रस्थानम् , ३१.२३)

ಜಠರಾಗ್ನಿಯು ವಿಷಮವಾದಾಗ ವಾತಸಂಬಂಧಿರೋಗವು, ತೀಕ್ಷ್ಣವಾದಾಗ ಪಿತ್ತಸಂಬಂಧಿರೋಗವು, ಮಂದವಾದಾಗ ಕಫಸಂಬಂಧಿರೋಗವು ಉದ್ಭವಿಸುವುದು. ಆದ್ದರಿಂದ ಜಠರಾಗ್ನಿಯನ್ನು ಸಮಸ್ಥಿತಿಯಲ್ಲಿ ಕಾಪಾಡಿಕೊಳ್ಳಬೇಕು.

हमारे शरीर मे वात, पित्त, कफ यह तीन प्रकृतियाँ रहती हैं । उदर मे स्थित अग्नि विषम होने पर वातज रोगों की उत्पत्ति करता है । वही तीक्ष्ण होने पर पित्तनिमित्तक रोगों का कारण बनता है, तथैव मन्दाग्नि कफ से सम्भावित रोगों का हेतु है । इसी लिये हर मनुष्य को जठराग्नि का सन्तुलन रखना चाहिए ।


There are three types of human natures called Vata,Pittha and Kapha ,   the Jatharaagni of a human supports his/her digestive system. If a persons Jatharaagni  gets odd,   it leads to emergence of Vata based diseases . If the digestive process of Jatharaagni  gets pungent it creates the Pittha based diseases . Moreover, slow digestion process by  Jhatharaagni leads to the Kapha based diseases. Therefore one must try to keep a balanced digestion process for an ideal health.